पित्त दोष और पीलिया
पीलिया का प्रमुख कारन दूषित जल एवं अखाद पदार्थों का सेवन है | इसे जोंडिस भी कहते हैं | यह यकृत की कार्य प्रणाली में अवरोध के कारण से उत्पन्न हो जाती है, जो अत्यधिक पित्तकारक आहार-विहार का सेवन करने से होती है, क्योंकि बढ़ा हुआ पित्त रस रक्त एवं त्वचा पर दूषित प्रभाव डालकर रोग उत्पन्न करता है | समय पर समुचित इलाज के आभाव में प्रतिवर्ष हजारों लोग मौत के मुँह में चले जाते हैं |
जब पित्ताशय में किसी प्रकार की रुकावट आ जाती है, तो पित्त छोटी आँतों में नहीं आ पाता और वापस यकृत (लीवर) में चला जाता है | वहाँ धमनियों में बहने वाले रकत में मिलना शुरू हो जाता है जिससे रक्त में बिलीरुबिन, जो पित्त (बाईल) में विद्ममान होती है, की मात्रा रक्त में बढ़ जाती है | इसी को जोंडिस या पीलिया रोग के नाम से पुकारा जाता है | बिलीरुबिन की मात्रा रक्त में अधिक होने के कारन गुर्दे (किडनी), रक्त को पूर्णतया छानने में असमर्थ होते हैं, तो मूत्र का रंग पीला हो जाता है |
चिकित्सकों के अनुसार पित्त के स्त्राव में अव्रोश उत्पन्न होने के कारन पीलिया होता है | परिणामस्वरूप त्वचा तथा तंतुओं में पीलापन आ जाता है, यह पहले रक्त में दिखाई पड़ता है, फिर मूत्र में, बाद में आखों में आता है और सबसे अंत में त्वचा पर दिखाई देता है | कई बार पीलिया रोग के न होने पर भी कुछ अन्य रोगों की अवस्थाओं में शरीर में पीलापन आ जाता है – ऑंखें पीली दिखाई पड़ती हैं जैसे-मलेरिया, क्षयरोग, कैंसर आदि | कुछ दवाओं के सेवन से भी पेशाब का रंग पीला हो जाता है, इस सब अवस्थाओं में पीलिया रोग का भ्रम हो जाता है, परन्तु प्रयोगशाला में जांच करने पर स्थिति स्पष्ट हो जाती है |
पित्त स्त्राव में अवरोध के कारण उत्पन्न पीलिया की पहचान सबसे पहले रोगी के मल को देखकर की जाती है | इस अवस्था में आंतों में पित्त का आभाव होता है और इसके कारन मल का रंग सफेद या मिटटी के रंग जैसा होता है, इस अवस्था में आंतों में सड़ांध उत्पन्न हो जाती है तथा मल में वासा की वृद्धि हो जाती है | वसा का पाचन न होने के कारन मल में चर्बी के कण मिलते हैं, मूत्र में गहरा पीलापन आ जाता है, शरीर में तेज सुखी खुजली होती है, इस पीलिया में स्वेताणुओं की अधिकता होती है |
पीलिया रोग के मुख्य कारण
पीलिया अधिक अमली पदार्थों के सेवन से, लवण रस प्रधान पदार्थों के सेवन से, अधिक मध्रापान से, अधिक तली हुई वस्तुओं के सेवन से, अधिक मिर्च-मसालों के सेवन से से रोग होने की आशंका रहती है |
पीलिया वायरस से उत्पन्न होता है | यह एक रोगी से फैलकर अनके व्यक्तियों को रोगग्रस्त कर देता है | यह वायरस रोगी के मल से निकलता है, जिस पर मक्खियां बैठकर अन्य व्यक्तियों, भोजन व् जल को दूषित कर देती है | यदि किसी धनि धनि आबादी वाले मोहल्ले या नगर में यह रोग तो जाए, तो पुरे नगर या मोहल्ले में रोग फैलने की आशंका रहती है |
पीलिया नवजात शिशु व् किरोशाव्स्था में अधिक होता है | 40 से 50 वर्ष की उम्र की पश्चात् इस रोग के होने की संभावना बहुत कम रहती है |
पीलिया की तीन अवस्थाएं
पहली अवस्था : रोगी के भूख में कमी आ जाती है | भोजन करने की इच्छा नहीं होती, जो लोग चाय या सिगरेट का अधिक सेवन करते हैं, उनकों इस वस्तुओं से घृणा हो जाती है | कभी-कभी उल्टी (वमन) की इच्छा होती है परन्तु पूर्ण रूप से उल्टी नहीं होती | कभी-कभी रोगी के जावर या शरीर में वेदना बेचैनी महसूस होती है | इसमें शरीर में पीलापन, जो आँखों में देखा जा सकता है, यह एक महत्वपूर्ण चिन्ह है | मूत्र भी पीलापन लिए हल्दी की तरह पीला हो जाता है | इन लक्षणों के साथ-साथ वजन कम होना आरंभ हो जाता है |
दुरसी अवस्था : इस अवस्था में बिलिरुबिन की मात्रा रक्त में अधिक हो जाती अहि जिसके कारन त्वचा का रंग भी पीला हो जाता है तथा खुजली भी होने लगती है | मल का रंग भी सफेद हो जाता है क्योंकि पित्त छोटी अंत में नहीं पहुँच पाता है |
तीसरी अवस्था : यह अवस्था रोगी के सुधार की अवस्था होती है | सिमें रोगी के सभी उपयुक्त लक्षण कम होने आरंभ हो जाते हैं |
जवर, कम भूख, लग्न शुरू, त्वचा व् मूत्र के रंग में परिवर्तन होना प्रारंभ हो जाता है |
संक्रामक पीलिया
संक्रामक तथा विषयुक्त पीलिया में कुछ पित्त समान्यत: आँतों में पहुँचता रहता है | अत: मल का रंग सफेद नहीं होता लेकिन यकृत की कोशिकाओं को नुकसान पहुँच सकता है, परिणामस्वरूप पित्त, पिगमेंट्स और नमक रक्त में ही रूप जाते हैं जिसके कारन यकृत का विकृत होना स्वाभाविक है | संक्रामक पीलिया जिसे विषयुक्त पीलिया भी कहते हैं, की उपत्ति किसी प्रकार के संक्रमण अथवा विषयुक्त पदार्थों के प्रयोग से होती है |
जीवाणु जन्य विष : संक्रामक यकृत शोथ, निमोनिया, सिफलिस, टायफायड, मलेरिया तथा, अन्य विषाक्त ज्वरों में संक्रामक पीलिया हो सकता है |
शरीररोत्पन्न विष : जैसे हृदय एवं गुर्दे में लम्बे समय तक होने वाली बिमारियों से उत्पन्न विष भी पीलिया के उत्पादक कारण हो सकते हैं |
एक अन्य प्रकार का पीलिया और होता है, जिसे हिमोलिटिका पीलिया कहते हैं | इसका प्रधान कारण है, रक्त में रक्ताणुओं का अधिक संख्या में टूटना | इस अवस्था में मल का रंग स्वाभाविक रहता है | साधारणत: मूत्र में बिलीरुबिन नहीं होता, प्लीहा बढ़ी हुई रहती है और उसमें सुजन रहती है |
संकट की अवस्था : इस रोग में 90 प्रतिशत रोगी स्वस्थ हो जाते हैं परन्तु यदि रोगी निरंतर मिथ्या आहार-विहार करता है, तो यकृत में वृद्धि हो जाती है | रोगी के पेट (उदर) में जल एकत्रित होना आरम्भ हो जाता है जिसको जलोदर नाम से पुकारा जाता है | इसमें निंद्रा का नाश हो जाता है, शरीर में कंपन, स्मृति-नाश व् मूर्च्छा तक हो जाती है | जब और अधिक भयंकर अवस्था होती है, तो रोगी के मुंह से रक्तस्त्राव भी होना आरम्भ हो जाता है | इस अवस्था में रोगी को अस्पताल ले जाना ही उचित रहता है |
होम्योपैथी की प्रमुख दवाएं निम्न हैं, जिन्हें रोगी की अवस्था के अनुसार देकर उपचार क्या जा सकता है | रोगी की किसी अनुभवी चिकित्सक के परामर्श एवं मर्दर्शन में ही द्वायं नियमित सेवन करनी चाहिए |
न्स्क्वोमिका, चलिडोनिय्म मेजस, चियोन्थस, सल्फर हाईड्रोस्टिस, म्क्युरियस, पोडोफाइलम, कोमोमिला इत्यादि |
सावधानियां एवं आहार-विहार
रोगी के पीलापन दिखाई देने तक पूर्ण विश्राम कराना चाहिए |
प्रोटीनयुक्त भिजन गाय का दूध (मलाई रहित), कच्ची लस्सी, क्रीम निकला हुआ दूध लाभकारक होते हैं |
प्रोटीन युक्त आहार का सेवन करना चाहिए, जो यकृत की रक्षा करता है |
कार्बोहायड्रेट भी यकृत के लिए पीलिया की अवस्था में आवश्यक है जैसे- ग्लूकोज, गन्ने का रस, मीठे फलों का रस भी लाभदायक है |
हरी साग-सब्जियां भी पीलिया रोग के निवारण में लाभदायक होती हैं जैसे – पालक, बधुआ, पत्तागोभी, चुकंदर, सरसों का साग, सलाद के पत्ते, गाजर तथा मुली आदि |
इस रोग में पित्त का निर्माण कम होने से विटामिन ए व डी को विशेष कमी हो जाती है | अत: रोगी को विटामिन ‘ए’ 5000 यूनिट तथा विटामिन ‘डी’ 1000 यूनिट की मात्रा दिन में कम से कम 2500 से 3000 कैलोरी दी जानी आवश्यक है | निषेध आहार-विहार-धुम्रपान, अधिक व्यायाम, मधपान, लाल मिर्च, आचार सिरके से बने पदार्थ, ये सब पीलिया के लिए अत्यंत हानिकारक हैं | अत: इसका सेवन पीलिया से पीड़ित होने पर स्थगित रखें |