पेचिस रोग से बचने के उपाए और जानिए कैसा होना चाहिए आपका आहार

आपका आहार और पेचिस

आहार प्रणाली द्वारा शरीरोपयोगी अणुओं का ग्रहण व् अनुपयोगी पदार्थो के त्याग की किर्या को ही पाचन कहते हैं | इस क्रिया में असन्तुलन या विकार पैदा होने पर अन्न रस अपरिपक्व रह जाता है और आम या आंत की उत्पत्ति होती है | एंटअमीबा हिस्तोलिटिका नामक कीटाणु से उत्पन्न होने के कारन इसे अमेबाएसिस भी कहा जाता है | यह रोग गर्म देशों के माध्यम आयु के व्यक्तियों में व्यापक स्तर पर पाया जाता है | प्रारम्भ में उपेक्षा करने तथा खानपान का ध्यान न रखने से यह रोग स्थायी रूप धारण कर लेता है | इसका जीवाणु शांत रूप में बहुत से व्यक्तियों के पेट में रहता है | जब यह आंत की देवार पर हमला करके उसके अंदर प्रविष्ट होकर केशिकाओं एवं खून के लाल व् सफेद कणों को खाकर अपनी वृद्धि करता है तब आंव का रोग जड़ें जमा लेता है | अमीबा के सिस्ट आँतों की झिल्ली में आश्रय बना लेते हैं तथा बीच-बीच में प्रकट होकर रोग की उत्पत्ति करते रहते हैं | आँतों की परतों में छुपे रहने की स्थिति में इन पर औषधि का प्रभाव नहीं पड़ता |

आयुर्वेद में आमदोष का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है –‘ आ इषत अम्य्ते पच्यते इति आम.’ अथार्त जिस अन्नरस का अपूर्ण या अल्प पाक होता है वह आम कहलाता है | इस विषसंज्ञा वाले आम से सभी रोगों की उत्पत्ति होना बताया गया है |

जठराग्नि कमजोर होने से आम का निर्माण होता है | मुह व् आमाशय में घुले हुए पदार्थ आँतों में अवशोषित होते हैं | आंत के आरंभिक भागमें ग्लूकोज व् वसा अगले भाग में अन्य पदार्थों व् विटामिन बी-12का शोषण होता है | यदि वसा का शोषण न हो तो मल की मात्र बढ़ जाती है | छोटी आंतों की कमजोरी में आंव मल में लिपटा हुआ आता है जबकि बड़ी आँतों की विकृति हो तो अलग से टुकड़े आते हैं |

आचार्य सुक्ष्रुत ने प्रतिपादित किया है कि गरिष्ठ, अधिक चिकने, अति रक्ष, अधिक गर्म, द्रव्बहुल, अति स्थूल व् शीतल पदार्थों का सेवन करने तथा विरुद्ध भोजन, बार-बार भोजन, अधपका तथा विषम भोजन, विष सेवन, भय, शोक, मदिरापान, दूषित जल का सेवन, वेग धारण तथा  कृमि के कारण पेट में आमदोष पैदा होता है | चरक के अनुसार आमदोष से शरीर में मल का रुका रहना, सुस्ती, मूर्च्छा, चक्कर आना, पीठ व् कमर की जकड़न, उबासी, शरीर टूटना, प्यास लगना, ज्वर, बार-बार मल की आशंका होना, भोजन में अरुचि व् आहार का अपाक- ये लक्षण उत्पन्न होते हैं |

प्रारम्भ में यह रोग कम तकलीफ देता है पर पुराना होने पर उत्तरोत्तर कष्टकारी बन जाता है | पहले बदबूदार, भूरे रंग का, आंव मिश्रित गाढ़ा मल दिन में 3-4 बार ऐंठन के साथ आता है | फिर पेट में दर्द, अफारा, आलस्य, उदासी, थकावट, पांवों में दर्द व् मानसिक चिडचिडापन आदि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं | बहुधा इस रोग का प्रांभ कब्ज से होता है | मल रुका रहने पर अमीबा की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है | कब्ज के बाद एकाएक 5-7 बार आंवयुक्त मल की प्रवृति हो जाती है | इस चिपचिपे ष्लेष्मा (आंव) के साथ खून भी आ जाता है | रोग पुराना होने  व् चिकित्सा में लापरवाही बरतने से आँतों में घाव, रक्स्त्राव, पेट की सुजन, यकृत की शोथ, यकृत में मवाद, जोड़ों में दर्द, रकतक्षय, तवचा पर सफेद दाग, एलर्जी दमा, नाड़ी तंत्र की विकृति, बुखार व् मानसिक अवसाद अदि विकार पैदा हो जाते हैं |

एन्टअमीबा हिस्टोलिटिका के सिस्ट (कोष) पानी  व् भोजन के माध्यम से हमारे शरीर में पहुंचकर इस रोग को पैदा करते हैं | आज-हमारे देश में 50 करोड़ से अधिक लोग स्वच्छ व् पीने योग्य पानी से वंचित हैं, तब इस रोग का व्यापक रूप से फैलना स्वाभाविक ही है | एक शोध के अनुसार 80 प्रतिशत व्याधियां गंदे पानी से ही उत्पन्न होती हैं | दूषित पानी के कारन भारत में प्रतिवर्ष 15 लाख बच्चे पेचिश की चपेट में आकर मौत के मुँह में समा जाते हैं | अतः आंव के रोग से बचने के लिए कीतानुराहित शुद्ध जल का प्रयोग करना बहुत आवश्यक है | इस प्रकार हल्का, ताजा, शुद्ध व् सन्तुलित आहार मनुष्य को इस रोग से बचाए रखता है | आंव के रोगी को खुले स्थान पर मल-त्याग नहीं करना चाहिए क्योंकि मक्खियां इस रोग के कीटाणु की संवाहिका होती हैं | मल के द्वारा बाहर निकलकर ये कीटाणु गीले स्थान में 8 -10 दिन तक जीवित रह सकते हैं |

बासी, ठंडा व् गरिष्ठ भोजन तथा रेशे, बीच व् पत्तियों वाले शाक और दूध इस रोग को बढ़ाते हैं | मिर्च, मसाले, तली हुई वस्तुएं, मटर, चना, मैदा, चाय, कॉफी व् मदिरा का सेवन आंव के रोगी को कदापि नहीं करना चाहिए | चावन, मुंग की दाल, साबूदाना, जौ, अनार, केला, नींबू, परवल, चौलाई व् छाछ इस रोग में हितकर हैं | वायु प्रदुषण व् ध्वनि प्रदुषण इस रोग की वृद्धि करने वाले सिद्ध हुए हैं |  सुबह जल्दी उठना, योग साधना, प्रात: भ्रमण, प्राणायाम, व्यायाम व निश्चिन्त्ता इस रोग से बचने हेतु कारगर उपाय है |

वर्तमान में तिनिडाजोल, मेट्रोनीडाजोल, हाईड्रोक्सीक्विरोलाइन, क्लोरीक्विन व् अन्य जीवाणुनाशक औषधियां इन रोग को तात्कालिक रूप से ठीक करने में समर्थ हैं पर इनसे स्थायी लाभ नहीं होता | आयुर्वेद में भी पारे से निर्मित बहुत सी दवाएं इस रोग का निवारण करने में सक्षम हैं, पर निरापद रूप से रोग का मूलुच्छेद्न करने व् शरीर में रोग-प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न करने में वनौषधियां सर्वश्रेष्ठ हैं |

ईसबगोल आंव को नष्ट करने के लिए बहुत प्रभावशाली वस्तु है | इसकी भूसी व् दाने दोनों ही गुणकारी हैं | दानों को प्रयोग में लेने के पूर्व कुछ घंटे पानी में भिगोना चाहिए | ईसबगोल आँतों की झिल्ली की उत्तेज्न्शीलता, गर्मी व् सुजन को मिटाकर अमीबा की वृद्धि को नियंत्रित करता है | यह पेट की अतिरिक्त वसा को सोख लेता है | पेकिटन तत्व से भरपूर मल के साथ खून आना बंद कर देता है | कुत्जत्वक या कुडाछाव आंव के रोग को समूल नष्ट करने में एक सफल औषधि है | इसके कौनोसाइन, कुर्चिन व् कुर्चिसीन नामक क्षारीय तत्व अमीबा नाशक सिद्ध हुए हैं | कुडाछाव, अनार का छिलका व् लोध का संभाग चूर्ण 5-5 ग्राम दिन में दो तीन बार लेने से अमीबाएसिस रोग कुछ सप्ताहों में दूर हो जाता है | बेल के फल की सुखी गिरी को ईसबगोल की भूसी के साथ मिलाकर सुबह शाम 2-2 चम्मच लेने से आंव के रोग में बहुत लाभ होता है व् आँतों की पाचन व् शोषण शक्ति बढ़ती हैं | 100 ग्राम सौंफ, 100 ग्राम ईसबगोल की भूसी व् 25 ग्राम सौंठ का चूर्ण 4.4 ग्राम नियमित लेने से पेट में स्थित आमदोष का पाचन हो जाता है | मल क्रिया को भी यह सामन्य रखता है | आंव के रोगी को प्रांत: अल्पाहार तथा दोपहर में भोजन के बाद सिका हुआ जीरा और सेंधानमक मिलाई हुई छाछ का सेवन बहुत लाभ पहुंचाता है | बेल फल, नागरमोथा, धायफूल, मोचरस व् सौंठ को समान भाग लेकर बनाया हुआ चूर्ण 3-3 ग्राम की मात्रा में तीन बार खाने से आंव के रोग में बहुत फायदा होता है | हरड बड़ी, अतीस व् इन्द्रजौ 100-100 ग्राम तथा भुनी हींग 10 ग्राम की चूर्ण बनाकर एक-एक चम्मच भोजन के पूर्व लेने से आमदोष का पाचन हो जाता है व् रोगकारक जीवाणु नष्ट हो जाते हैं | इसी प्रकार चत्य, अतीस, कुठ व् सौंठ का समभाग चूर्ण 5.5 ग्राम लेना फायदेमंद है | अनार के कच्चे फल का रस निकालकर पीने से आंवरोग में बहुत लाभ होता है | आधा कप रस नित्य खाली पेट लेना चाहिए | जिस आंव रोग में मल की प्रवृति कम हो व् पेट में गैस अधिक हो तब छोटी हरड भुनी हुई, अजवायन, सौंठ, पीपल, चित्रक व् काला नमक को समान भाग लेकर बनाया गया चूर्ण बहुत लाभदायक है | इसे एक-एक चम्मच दिन में तीन बार पानी के साथ लेना चाहिए | समान भाग में लिए गए धनिया, सौंठ, नागरमोथा, नेत्रबाला व् बेलगिरी को धान्य्पंचंक कहते हैं | इसकी 10-10 ग्राम मात्रा को दिन में दो बार पानी में उबाल कर क्वाथ बनाकर पीने से दो-तीन माह सप्ताह में आंव का रोग जड़ से समाप्त हो जाता है |

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  1. Vijay Kumar March 17, 2018

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